Wednesday, May 12, 2010

Shah Faisal Ko Rollmodel Banayen

यूसुफ किरमानी


बीते शुक्रवार यानी जुमे को अखबारों में पहले पेज पर दो खबरें थीं, एक तो कसाब को

फांसी की सजा सुनाई जाने की और दूसरी सिविल सर्विस परीक्षा में ऑल इंडिया टॉपर शाह फैसल की। आप इसे इस तरह भी देख सकते हैं कि एक तरफ मुसलमान का पाकिस्तानी चेहरा है तो दूसरी तरफ भारतीय चेहरा। हर जुमे की नमाज में मस्जिदों में खुतबा पढ़ा जाता है जिसमें तमाम मजहबी बातों के अलावा अगर मौलवी-मौलाना चाहते हैं तो मौजूदा हालात पर भी रोशनी डालते हैं। अक्सर अमेरिका की निंदा के स्वर इन खुतबों से सुनाई देते हैं। उम्मीद थी कि इस बार जुमे को किसी न किसी बड़ी मस्जिद से आम मुसलमान के इन दो चेहरों की तुलना कोई मौलवी या मौलाना करेगा, लेकिन मुस्लिम उलेमा यह मौका खो बैठे।



जिक्र का हकदार



देश की आजादी के बाद यह चौथा ऐसा मौका है जब किसी मुस्लिम युवक ने आईएएस परीक्षा में बड़ी सफलता पाई है। जिसके पिता का आतंकवादियों ने कत्ल कर दिया हो, जिसने एमबीबीएस परीक्षा भी पास कर ली हो और जिसकी शिक्षक मां ने उसे रास्ता दिखाया, वह जुमे के खुतबे में या तकरीर में कम से कम उल्लेख किए जाने का हकदार तो है ही। लेकिन कुछ और वजहों से भी शाह फैसल का उल्लेख मस्जिदों और मदरसों से लेकर गली-कूचों तक में किया जाना जरूरी हो गया है। शाह फैसल की सफलता ने भारतीय मुसलमानों की उस युवा पीढ़ी में एक उम्मीद जगा दी है, जो फतवों से ऊपर उठकर कुछ करना चाहती है, जो अपने मजहब और देश के कल्चर में रहकर ही कुछ पाने की तमन्ना रखती है।



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इस बात पर जब-तब बहस होती रही है कि भारतीय मुस्लिम युवक शिक्षा के नजरिए से बाकी समुदायों के मुकाबले बहुत पिछड़े हुए हैं। नैशनल सैंपल सर्वे के आंकड़े के मुताबिक मुसलमानों की कुल आबादी में कॉलेज ग्रैजुएट सिर्फ 3.6 फीसदी हैं। सिविल सेवा परीक्षा के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता ग्रैजुएट है। मुसलमानों में शैक्षणिक पिछड़ेपन की बहस को अंत में सरकार की नीतियों और रिजवेर्शन पर ले जाकर खत्म कर दिया जाता है। राजेंद्र सच्चर कमिटी की रिपोर्ट आने के बाद से इस बहस को और भी मजबूती मिली है।



फैसल बने रोल मॉडल



लेकिन, बात जुमे पर पढ़े जाने वाले खुतबे से शुरू हुई थी। सरकार जब कुछ करेगी, तब करेगी। नमाज पढ़ाने वाले इमाम या मौलवी जुमे पर जुटने वाली भीड़ से क्या कभी यह कहते हैं कि हमें ज्यादा मुस्लिम युवकों को आईएएस-आईपीएस बनाने के लिए या आईआईएम तक पहुंचाने के लिए स्टडी सेंटर चाहिए? कितने ऐसे उलेमा या मौलाना हैं जो अपने समुदाय के लोगों से यह अपील करते नजर आते हैं कि हमें भी बिहार और झारखंड के सुपर 30 मॉडल को अपनाकर अपने बच्चों को आईआईटी तक पहुंचाने का रास्ता बनाना चाहिए? जिस अजमेर शरीफ दरगाह को भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के मुसलमान एक पवित्र स्थान के रूप में जानते हैं, क्या वहां की कमिटी ने कभी कोई यूनिवर्सिटी या प्रफेशनल कॉलेज खोलने की पहल की? राजधानी दिल्ली की बात करें तो यहां हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में अजमेर के मुकाबले कम चढ़ावा नहीं आता, लेकिन उस पैसे का इस्तेमाल क्या देश में कई और शाह फैसल पैदा करने में खर्च नहीं किया जा सकता?



आप मस्जिद और मदरसे के लिए चंदा मांग सकते हैं तो इस नेक काम के लिए परहेज क्यों? जिस अजमेर शरीफ दरगाह को भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के मुसलमान एक पवित्र स्थान के रूप में जानते हैं, क्या वहां की कमिटी ने कभी कोई यूनिवसिर्टी या प्रफेशनल कॉलेज खोलने की पहल की? राजधानी दिल्ली की बात करें तो यहां हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में अजमेर के मुकाबले कम चढ़ावा नहीं आता, लेकिन उस पैसे का इस्तेमाल क्या देश में कई और शाह फैसल पैदा करने में खर्च नहीं किया जा सकता? अकेले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवसिर्टी (एएमयू) और जामिया हमदर्द डीम्ड यूनिवर्सिटी में स्टडी सर्कल चलाकर आप बड़ी तादाद में आईएएस, आईपीएस या आईआईटियन पैदा नहीं कर सकते? क्या अनंतनाग या सीवान का हर युवक शाह फैसल की तरह दिल्ली आकर हमदर्द स्टडी सर्कल में सिविल सविर्सेज की तैयारी कर सकेगा? अगर शाह फैसल को रोल मॉडल बनाकर आप इसे एक आंदोलन का रूप दे दें तो यह मुमकिन है। शाह फैसल ने आपको एक मौका दे दिया है।



तिरुपति देवस्थानम द्वारा संचालित शिक्षण संस्थाएं वेल्लूर से लेकर दिल्ली तक फैली हुई हैं और इनमें प्राइमरी स्कूल से लेकर डिग्री कॉलेज तक हैं। इनकी संस्थाओं में गरीब बच्चे पढ़कर आईएएस और आईआईटी की मंजिल तय करते हैं। अम्मा के नाम से विख्यात मां अमृतानंदमयी तो अब उत्तर भारतीय लोगों में भी उतनी ही प्रसिद्ध हो गई हैं जितनी दक्षिण भारत में। आज वह अपने प्रवचन से ज्यादा स्कूल-कॉलेज और यूनिवर्सिटी खोलने के लिए जानी जा रही हैं। कर्नाटक में गुलबर्गा शरीफ दरगाह में आने वाले चढ़ावे और दूसरी आमदनियों से वहां की कमिटी कई सफल वोकेशनल कॉलेज चला रही है। शिया धर्म गुरु मौलाना कल्बे सादिक ने अलीगढ़ में एकदम एएमयू की तर्ज पर एक ऐसा शिक्षण संस्थान खड़ा किया है, जहां कई रोजगारपरक विषयों की पढ़ाई हो रही है। पर, शिक्षा के क्षेत्र में काम को ईसाई मिशनरियों की तरह जितनी गंभीरता से लिया जाना चाहिए था, मुस्लिम समुदाय ने इसे उस रूप में नहीं लिया।



एक रुपये से तब्दीली मुमकिन



दिल्ली की सबसे बड़ी शाही जामा मस्जिद में हर जुमे को नमाज पढ़ने वाला मुसलमान अगर एक रुपया भी इस काम के लिए दे तो आप कुछ साल में एक अच्छा प्रफेशनल शिक्षण संस्थान खड़ा कर सकते हैं। पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब तो धर्म के अलावा इल्म की बात भी बताकर गए थे, पर कितने लोग हैं जो इल्म की अलख जगाने के लिए मौजूदा हालात में सामने आए हैं। यहां पर उन लोगों का जिक्र बेमानी होगा जिन्होंने एमपी-एमएलए बनने के बाद निजी हितों के लिए शिक्षण संस्थाएं खोलीं।



ये वे लोग हैं जो प्रधानमंत्री रोजगार योजना और अल्पसंख्यक कल्याण निगमों से कर्ज दिलाने की बात कर आपको हमेशा दस्तकार बनाए रखना चाहते हैं। ऐसे लोग नहीं चाहते कि फिरोजाबाद में कांच की भट्ठी में तपने वाला मुस्लिम युवक आईएएस बनने का सपना भी देखे। वे लोग लखनऊ के चिकन कपड़ों का एक्सपोर्ट लाइसेंस तो खुद हासिल करेंगे लेकिन अपने समुदाय के लड़के-लड़कियों से चाहेंगे कि वे सारी जिंदगी उन कपड़ों पर चिकन की कढ़ाई करते रहें!









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