Wednesday, May 19, 2010

नफरत और न्याय

ऐसा क्यों है कि अजमल कसाब और अफजल गुरु की फांसी के मुद्दे पर बात शुरू होती है, तो घृणा की लपटों से पूर

ा माहौल घिर जाता है, कुछ इस तरह कि तर्क शक्ति और विवेक के ठहरने की गुंजाइश ही नहीं रह जाती? इन दोषियों से नफरत के इजहार के लिए लोग न्याय और नीतियों से परे जाने के लिए तैयार दिखते हैं। कोई इस बात के लिए शर्मसार महसूस करता है कि ये दोनों अब तक जीवित क्यों हैं? कोई इस बात के लिए उतावला है कि किसी तरह उसे ही दोनों को मारने का मौका मिल जाए। यह सब सोचने और कहने वाले अपराधी नहीं हैं।
ये साधारण और मासूम लोग हैं, मेहनत करके रोजी-रोटी कमाने वाले पारिवारिक लोग, जो रोजमर्रा के जीवन में बेहद शांत रहते हैं। जो घर के सामने होने वाले छोटे-मोटे अन्याय को अनदेखा करते हैं और अपने साथ होने वाली ज्यादती को भी सहते हैं, उसका विरोध नहीं करते। ऐसे लोग भी कसाब और अफजल को लेकर बेहद आक्रामक रवैये का इजहार करते हैं, क्योंकि यह सबसे सुरक्षित किस्म की नफरत है। इसको व्यक्त करके वह किसी जोखिम में नहीं पड़ेंगे, बल्कि देशभक्त कहे जाएंगे। दरअसल इस नफरत में महंगाई को लेकर उनका असंतोष, भ्रष्ट नेताओं-अफसरों और शहर के अपराधियों को लेकर उनका गुस्सा शामिल है। जो असंतोष वह कहीं और न निकाल सके, अब इस रूप में निकाल रहे हैं, क्योंकि इसका उन्हें भरपूर मौका दिया जा रहा है।
भीतर की आग भड़काई जा रही है। रोजमर्रा की समस्याओं से भन्नाया उनका दिमाग अफजल और कसाब को गालियां देकर थोड़ा शांत हो रहा है। इसलिए ठहर कर सोचने की जरूरत है कि कहीं कसाब और अफजल के बहाने हमें मूल समस्याओं से भटकाया तो नहीं जा रहा है। क्या इन दोनों के खत्म हो जाने से आतंकवाद से छुटकारा मिल जाएगा? अफजल और कसाब तो मोहरा भर हैं, आतंकवाद का नेटवर्क तो बहुत व्यापक है। इसके खिलाफ लड़ाई सूझबूझ से लड़ी जा सकती है, प्रतिहिंसा से नहीं। इस संघर्ष में सरकार, विपक्ष और हरेक नागरिक की भागीदारी अपेक्षित है। आज देश का एक तबका कसाब और अफजल के बहाने अपने सिस्टम पर ही सवाल उठा रहा है। अगर अपनी व्यवस्था के प्रति भरोसा ही नहीं बचा तो फिर बचेगा क्या। कसाब और अफजल को लेकर न्यायपालिका ने अपना फैसला सुना दिया है, अब उसे अमल में लाने की जवाबदेही कार्यपालिका की है। समाज को धैर्य रखना चाहिए।

No comments:

Post a Comment